सुषमा स्वराज का फैसला

विधानसभा चुनावों की गहमागहमी के बीच, मोदी सरकार में विदेश मंत्री और भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने इंदौर की चुनावी सभा में ऐलान किया है कि वे 2019 का आम चुनाव नहीं लड़ेंगी। हालांकि राजनीति से वे संन्यास नहीं ले रही हैं, यह भी उन्होंने स्पष्ट किया है। सक्रिय राजनीति हटने, स्वेच्छा से पद छोड़ने या दलगत राजनीति छोड़कर अन्य माध्यमों से समाजसेवा करने के फैसले पहले भी बहुत से लोगों ने लिए हैं, और आगे भी लिए जाते रहेंगे। लेकिन सुषमा स्वराज का यह फैसला थोड़ा चौंकाता है। इससे पहले सोनिया गांधी ने जब भारी समर्थन और सांसदों के दबाव के बावजूद प्रधानमंत्री पद नहीं स्वीकार किया था, तब भी सबको बेहद आश्चर्य हुआ था। लेकिन वह फैसला राजनीति में त्याग की उच्चतम मिसाल था। सुषमा स्वराज का यह फैसला त्याग श्रेणी में नहीं आता है, लेकिन फिर भी हैरानी इसलिए होती है, क्योंकि वे भारतीय राजनीति का कद्दावर चेहरा हैं। बीते लगभग 4 दशकों से सक्रिय राजनीति में हैं और इस दौरान केबिनेट मंत्री, पार्टी प्रवक्ता, मुख्यमंत्री से लेकर नेता प्रतिपक्ष तक कई किरदारों को उन्होंने बखूबी अंजाम दिया है। सुषमा स्वराज की विचारधारा या राजनीति से कोई सहमत हो या न हो, यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्होंने राजनीतिक और संवैधानिक पदों की मर्यादा को पूरी गरिमा के साथ निभाया और उनका राजनीतिक जीवन लगभग विवादहीन रहा। उनकी कार्यशैली और वक्तृता से सभी प्रभावित होते हैं। हालांकि उनमें कई बार अतिरेक हो जाता है। जैसे सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना मात्र से वे ऐसे विरोध आ गई कि सिर मुंडाने, सफेद साड़ी पहनने, भिक्षुणी की तरह जमीन पर सोने और सूखे चने खाकर जीने का ऐलान कर दिया था। उन्होंने अपने पति के साथ संसद की सदस्यता से इस्तीफा देने का फैसला ले लिया था। सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के फैसले को उन्होंने सौ करोड़ भारतीयों का अपमान माना था और कहा था कि वह राज्यसभा की सदस्यता इसलिए छोड़ रही हैं क्योंकि उन्हें सदन में सोनिया गाँधी को माननीय प्रधानमंत्री कहकर पुकारना गवारा नहीं है। बहरहाल, इसकी नौबत नहीं आई, क्योंकि सोनिया गांधी ने खुद ही प्रधानमंत्री बनने से इन्कार किया। 2004 के इस नाटकीय घटनाक्रम के बाद 2009 में एनडीए को फिर हार देखनी पड़ी और सोनिया गांधी के नेतृत्व में फिर यूपीए की सरकार ही बनी। हालांकि सुषमा स्वराज भाजपा के दिग्गज नेताओं की पहली पंक्ति में आ गई। अटलजी का दौर खत्म हो चुका था और आडवानी जी तब भी प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद में थे। लेकिन 2013 आतेआते नरेन्द्र मोदी भाजपा के केंद्र में आ गए और भाजपा से उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने की कोशिशें जोर पकड़ने लगीं। इसमें सुषमाजी, आडवानी जी के साथ नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी के विरोध खड़ी रहीं। 2014 में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए, आडवानी जी को मार्गदर्शक मंडल में शामिल कर हाशिए पर डाल दिया गया। लेकिन सुषमा स्वराज फिर केबिनेट में अपनी जगह बनाने में सफल रहीं। ये और बात है कि बतौर विदेशमंत्री उन्होंने जितनी विदेश यात्राएं नहीं की होंगी, उतनी ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी ने की। विदेशनीति के कई फैसलों पर भी मोदीजी ही हावी रहे। फिर भी विदेशों में फंसे भारतीयों को बचाने या पासपोर्ट संबंधित दिक्कतों जैसे मसलों पर मदद करने का काम उन्होंने लगातार किया। माना जाता है कि मोदीजी राजनीति के ऐसे चतुर खिलाड़ी हैं, जो अपने विरोधियों से सारा हिसाब चकता कर लेते हैं। ऐसे में सुषमा स्वराज को उन्होंने किस तरह अपनी केबिनेट में स्थान दिया, यह सवाल भी राजनीतिक गलियारों में उछला। क्या मोदीजी सुषमा स्वराज की क्षमताओं के कायल हैं, या फिर उन्हें अपने मंत्रिमंडल में भाजपा के वफादार और तेजतर्रार लोगों की जरूरत थी? या फिर उन्होंने सुषमाजी के प्रति सदाशयता दिखाई? कारण जो भी हो, यह एक सच्चाई है और राजनीतिक कमाल भी मोदीजी के प्रधानमंत्री बनने के विरोध के बावजूद वे उनके मंत्रिमंडल में सफलतापूर्वक बनीं रहीं


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