अध्यात्म में साक्षी
मानो इस सूरत में हमने ईश्वर को भी धोखा देना शुरू कर दिया। अब इससे ये मतलब नहीं है कि मनुष्य से कर्म छीन लिया जाता है, सिर्फ मनुष्य से कर्ताभाव छीना जा रहा है, कर्म नहीं छीना जा रहा होता। अब मजे की बात यह है कि जिसका ‘कर्ताभाव’ शांत हो जाता है वो इतने कर्म कर पाता है, जितने आम हालात में वो नहीं कर पाता, क्योंकि आम हालात में मनुष्य को अपने साथ ‘कर्ताभाव’ के बोझ को भी ढोना पड़ता है। मानो अहंकार ‘मैं’ को भी काफी ढोना पड़ता है और मनुष्य की शक्ति काफी मात्रा में अहंकार में खर्च हो जाती है। जबकि अकर्ताभाव में मनुष्य के पास केवल निष्काम कर्म रह जाता है और इस सूरत में मनुष्य की शुद्ध ऊर्जा निष्काम कर्म बन जाती है और अगरचे ऐसा कर्म तो मुनष्य से ही होगा, फिर भी मनुष्य इस प्रकार के कर्म को करने वाला नहीं होता। उदाहरण के तौर पर नदियां बह रही हैं, अगर नदी को ख्याल आ जाए कि इसे फलां जगह जाकर सागर में गिरना है, तो नदी पागल सी हो जाएगी, मगर नदियां बही चली जा रही हैं, कहीं कोई फिक्र नहीं है कि इन्हें कहां गिरना है या फिर अरब सागर में। नदियां तो बस बही चली जा रही हैं और अपने बहाव से पहाड़ों को काटती चली जा रही हैं और अगर रास्ते में कोई रुकावट आ जाती है, तो नदी किनारा काट कर गुजर जाती है और फिर एक दिन सागर में जा गिरती है। ये स्पष्ट है कि नदी कभी बेचैन नजर नहीं आती। अगरचे इसकी यात्रा काफी लंबी होती है, फिर भी नदी बेचैन नहीं है। इसी प्रकार जो व्यक्ति सब कुछ परमात्मा पर छोड़ देता है। वो भी ऐसी ही सांसारिक यात्रा करता है। इसको पक्का विश्वास होता है कि परमात्मा ने जो भी दिया है, अर्थ पूर्ण है, इसमें किसी भी चीज का इनकार करना परमात्मा का ही इनकार है और इस तरह से जब मनुष्य सबको स्वीकार कर लेता है तब एक अपूर्व क्रांति घटित होती है। अतः काम राम बन जाता है, क्रोध करुण बन जाता है, द्वेष और ईर्ष्या रूपी कांटे प्रेम के फूलों की तरह खिलने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति से कर्म तो बहुत होता है, लेकिन इसमें कर्तापन का लेप नहीं होता कोई चेष्टा नहीं होती। मानो इस शून्य अवस्था में जो आदमी पूर्ण सद्गुरु की अपार कृपा से खड़ा हो जाता है वही परमात्मा को पूरे का पूरा स्वीकार करता है। वही आत्मिक आनंद को उपलब्ध होता है। संपूर्ण अवतार बाणी का फरमान है ः
भाणा मन्ने निरंकार दा सतगुरु ते विश्वास करे
कहे अवतार सदा होए सुखिया देवलोक विच वास करे।।
अध्यात्म में ‘साक्षी’ भक्त के लिए पहला कदम है। दूसरा कदम ‘सजगता’ है। ये साक्षी से और गहरा कदम है, तीसरा कदम है ‘तथाता’। ये सबसे कठिन मगर श्रेष्ठतम कदम है। साक्षी भाव में हम द्रष्टा होते हैं, जो हो रहा है, बस हम उसे देख रहे होते हैं, मगर हो सकता है कि जो हो रहा है इससे हम राजी न हो रहे हों। सजगता में जो भी हम कर रहे होते हैं, करते समय हमें इसका पूरा-पूरा होश होता है, मगर ‘तथाता’ का अर्थ है परमस्वीकृति, मानो कोई शिकायत नहीं जो भी है, दुख है, मृत्यु है, प्रिय का मिलन है, विछोह है, जो भी है हम इसके लिए पूरे राजी है। यानी हमारे प्राणों के किसी भी कोने से कोई शिकायत, कोई इनकार, इस प्रकार का कोई भी भाव नहीं है ‘तथाता’ मानो पूर्ण आस्तिकता। तथाता का अर्थ है ‘सरमाथे रखना’। बुद्धि और हृदय दोनों से ईश्वर की रजा को प्रसन्नता से मानना।