विश्ववासियों पर है पृथ्वी ग्रह की प्रकृति संरक्षण का दायित्व

प्रदीप कुमार सिंह 
वर्तमान परिपेक्ष्य में कई प्रजाति के जीव जंतु एवं वनस्पति विलुप्त हो रही हैं। विलुप्त होते जीव-जंतु और वनस्पति की रक्षा का विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस पर संकल्प लेना ही इसका उद्देश्य है। जल, जंगल और जमीन इन तीन तत्वों के बिना प्रकृति अधूरी है। विश्व में सबसे समृद्ध देश वही हुए हैं, जहाँ यह तीनों तत्व प्रचुर मात्रा में हों। भारत देश जंगल तथा वन्य जीवों के लिए प्रसिद्ध है। विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस प्रत्येक वर्ष 28 जुलाई को मनाया जाता है। वस्तुतः प्रकृति के संरक्षण से ही धरती पर जीवन का संरक्षण हो सकता है, अन्यथा धरती का जीवन-चक्र भी एक दिन समाप्त हो जायेगा। प्रकृति की संरचना के अनुकूल प्रत्येक जीव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यदि इनमंे से किसी का भी क्षरण हो जाता है, तो उसका प्रभाव संपूर्ण पर्यावरण पर पड़ता है। प्रकृति संरक्षण के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाली विश्व की महान हस्तियों की मानव जाति सदैव ऋणी रहेगी। कुछ महान हस्तियाँ के विवरण इस प्रकार हैं:- 
'विकासवाद' के पिता चाल्र्स राबर्ट डार्विन एक प्रकृतिवादी थे, जिन्होंने संसार के लिए 'विकासवाद् का सिद्धांत' दिया। यह प्राकृतिक चयन और सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता का नियम है। डार्विन ने धैर्यपूर्वक बीस वर्षो तक कार्य करने के पश्चात कोई भी चीज जैसी दिखे, वैसी मानने से इंकार कर दिया। उनका उत्सुक मस्तिष्क प्रत्येक वस्तु का विवरण चाहता था। डार्विन ने साबित किया कि दूसरे जानवरों की तरह मानव की विकास यात्रा लाखों वर्षो में अपने पूर्वजों से अविकसित अवस्था से होते हुए वर्तमान अति विकसित अवस्था तक पहुंची है। 
भारत के पौधों में जीवन के खोजकर्ता जगदीश चंद्र बोस एक प्रतिष्ठित भारतीय वैज्ञानिक थे। वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने यह साबित किया कि पौधों और धातुओं में भी जीवन होता है। बाद में श्री बोस ने भौतिकी के बजाय धातुओं का अध्ययन प्रारंभ किया और फिर पौधों का। उन्होंने एक अत्यधिक संवेदनशील 'कोहेरर' उपकरण की रचना की। यह उपकरण रेडियो तरंगों को खोज सकता था। इसके द्वारा उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि धातुओं में भी भावनाएं और स्मरण-शक्ति होती है। उन्होंने पौधों के स्पंदन को रिकार्ड करने के लिये एक उपकरण की खोज की और इसे पौधे से जोड़ दिया। 
डा सलीम अली एक भारतीय पक्षी विज्ञानी, वन्यजीव संरक्षणवादी और प्रकृतिवादी थे। डा. अली देश के पहले ऐसे पक्षी विज्ञानी थे जिन्होंने सम्पूर्ण भारत में व्यवस्थित रूप से पक्षियों का सर्वेक्षण किया और पक्षियों पर ढेर सारे लेख और किताबें लिखीं। उनके द्वारा लिखी पुस्तकों ने भारत में पक्षी-विज्ञान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके कार्यों के मद्देनजर उन्हें “भारत का बर्डमैन” के रूप में भी जाना जाता है। उनके कार्यों और योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें सन् 1958 में पद्म भूषण और सन 1976 में देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया। डा. अली ने राजस्थान के 'भरतपुर पक्षी अभयारण्य' के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 'साइलेंट वैली नेशनल पार्क' को बर्बादी से बचाने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
जान मुइर (1838-1914) जिसे जाॅन आफ द माउंटेंस और नेशनल पार्कस के पिता के रूप में भी जाना जाता है, एक प्रभावशाली स्काटिश-अमेरिकन थे। प्रकृतिवादी, लेखक, पर्यावरण दार्शनिक, ग्लेशियोलाजिस्ट और संयुक्त राज्य अमेरिका में जंगल के संरक्षक के रूप में पहचाने जाते हैं। मुइर एक पारिस्थितिक विचारक, राजनीतिक प्रवक्ता और धार्मिक व्यक्ति होने के लिए प्रसिद्ध थे जिनके लेखन अनगिनत व्यक्तियों के लिए प्रकृति के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने हेतु प्रभावशाली मार्गदर्शक बन गए। 
गौरा देवी के नेतृत्व में उत्तराखंड के जंगलों को वन माफिया से बचाने के लिए 1970 की शुरूआत में गढ़वाल के ग्रामीणों ने अहिंसात्मक तरीके से एक अनूठी पहल करते हुए पेड़ों से चिपककर हजारों-हजार पेड़ों को कटने से बचाया। यह अनूठा आंदोलन 'चिपको आंदोलन' नाम से प्रसिद्ध हुआ था। यह आंदोलन वर्तमान उत्तराखंड के चमोली जिले के हेंवलघाटी से गौरा देवी के नेतृत्व में शुरू होकर टिहरी से लेकर उत्तर प्रदेश के कई गांवों में इस कदर फैला कि इसने वन माफिया की नींद उड़ा दी। 
सुन्दरलाल बहुगुणा प्रसिद्ध पर्यावरणविद् और चिपको आन्दोलन के प्रमुख नेता थे। इन्हें सन 1984 के राष्ट्रीय एकता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। चिपको आन्दोलन के कारण वे विश्व भर में वृक्षमित्र के नाम से प्रसिद्ध हो गए। श्री सुंदरलाल बहुगुणा 'पर्यावरण गांधी' के नाम से भी जाने जाते है। चिपको आंदोलन की सफलता के बाद पर्यावरण की रक्षा के लिए सुंदरलाल बहुगुणा ने टिहरी बांध के विरोध में अपने स्वर बुलंद कर दिये थे। 
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित सुश्री वंगारी मथाई केन्याई पर्यावरणविद् और राजनीतिक कार्यकर्ता थीं। यह महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली महान महिला के रूप में प्रसिद्ध है। उन्होंने अमेरिका और कीनिया में उच्च शिक्षा अर्जित की। 1970 के दशक में मथाई ने ग्रीन बेल्ट आंदोलन नामक गैर सरकारी संगठन की नींव डालकर पौधारोपण, पर्यावरण संरक्षण और महिलाओं के अधिकारों की ओर ध्यान दिलाया। 2004 में लोक कल्याण के सतत कार्यों की वजह से वह नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली अफ्रीका महिला और पहली पर्यावरणविद् बनी। 
मेधा पाटकर एक भारतीय पर्यावरणविद्, सामाजिक कार्यकर्ता तथा समाज सुधारक है। मेधा पाटकर नर्मदा बचाओ आंदोलन की संस्थापक के नाम से भी जानी जाती है। नर्मदा नदी महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश तथा गुजरात में से बहकर अरेबिअन समुद्र तक पहुँचती हैं। इस नदी पर काफी सारे छोटे बांध एवं सरदार सरोवर बांध को बनाने की अनुमति सरकार ने दी थी। इस कारण से हजारांे आदिवासियों तथा किसानों का भी नुकसान हो रहा था। आदिवासियों का विस्थापन हो रहा था और उसके लिये उन्हें मुआवजा भी नहीं दिया जा रहा था। पाटकर उन लोगों में से एक थी जिसने इस अन्याय के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी थी। 
मेनका गांधी प्रसिद्ध राजनेत्री, जानी-मानी पर्यावरणवादी एवं पशु-अधिकारवादी हैं। उन्हांेने अनेकों पुस्तकों की रचना की है तथा उनके लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रायः आते रहते हैं। वह भारत की एक अनुभवी सांसद है तथा केन्द्रीय सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्री रह चुकी है। भारत में पशु-अधिकारों के प्रश्न को मुख्यधारा में लाने का श्रेय श्रीमती मेनका गांधी को ही जाता है। सन 1992 में उन्हांेने पीपल फार अनिमल्स नामक एक गैर-सरकारी संगठन आरम्भ किया जो पूरे भारत में पशु आश्रय चलाता है।
विश्व-विख्यात पर्यावरणविद् एवं नवधान्य की संस्थापक-निदेशक, डा. वंदना शिवा जैविक खेती पर ज्यादा जोर देती हैं और देश भर के किसानों को जागरूक कर रही हैं। देहरादून में जन्मीं 58 साल की डा. वंदना शिवा ने पर्यावरण पर दो दर्जन किताबें लिखी हैं। 1970 में वंदना शिवा चिपको आंदोलन से जुड़ी थीं। उसके बाद तो पर्यावरण संरक्षण की लड़ाई और वंदना शिवा एक दूसरे के पर्याय बन गए। डा. वंदना को भारत में कई जैविक अभियान शुरू करने का श्रेय जाता है। वंदना ने नेटिव सीड्स (मूल बीज) को बचाने और जैविक कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए वर्ष 1987 में नवधान्य नामक संगठन की स्थापना की थी। 
सुनीता नारायण भारत की प्रसिद्ध पर्यावरणविद् है। सुनीता नारायण सन 1982 से विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र से जुड़ी हैं। वर्तमान में वह केंद्र की निदेशक हैं। वे पर्यावरण संचार समाज की निदेशक भी हैं। वे डाउन टू अर्थ नाम की एक अंग्रेजी पत्रिका भी प्रकाशित करती हैं जो पर्यावरण पर केंद्रित है। वे हरित राजनीति और अक्षय विकास की महान समर्थक हैं। सन 2005 में भारत सरकार ने उन्हंे पद्मश्री से अलंकृत किया। प्रकृति से प्यार करने वाली सुनीता नारायण को इंग्लैण्ड की पत्रिका ने अगस्त 2010 में दुनिया भर में मौजूद सर्वश्रेष्ठ 100 बुद्धिजीवियों की श्रेणी में शामिल किया है। 
ग्रीन मैन के नाम से विख्यात हरित ऋषि श्री विजय पाल बघेल का मानना है कि पर्यावरण और जीवन का अनोखा संबंध है। पर्यावरण का ध्यान रखना हर किसी की जिम्मेदारी और अधिकार होना चाहिए। विशेषकर आने वाली पीढ़ियों के लिए पर्यावरण संरक्षण बहुत जरूरी है। पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया हुआ है। वह अपने जीवन मंे अब तक देश और दुनिया में पांच करोड़ से अधिक पेड़ लगाकर गिनीज बुक आॅफ वल्र्ड रिकार्ड में नाम दर्ज करा चुके हैं।
चंडीप्रसाद भट्ट भारत के गांधीवादी, पर्यावरणवादी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उन्हांेने सन् 1964 में उत्तराखण्ड के गोपेश्वर में दशोली ग्राम स्वराज्य संघ की स्थापना की जो कालान्तर में चिपको आंदोलन की मातृ-संस्था बनी। वह 1982 में मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित हुए तथा वर्ष 2005 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण पुरस्कार दिया गया। भारत सरकार द्वारा साल 2013 में उन्हें गांधी शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। 'पर्वत पर्वत, बस्ती बस्ती' चंडी प्रसाद भट्ट की बेहतरीन यात्राओं का संग्रह है।
प्रसिद्ध पर्यावरणविद् डा. सौम्या दत्ता का नाम देश के अलग-अलग हिस्सों में विनाशकारी परमाणु ऊर्जा संयंत्रों का विरोध करने वालों की अग्रिम पंक्ति में आता है। डा. सौम्या दत्ता ने नर्मदा बचाओ आन्दोलन में भी प्रभावित होने वाले किसानों के पक्ष में जोरदार तरीके से हिस्सा लिया था। 
पर्यावरणविद् डा. रविकान्त पाठक वर्तमान में स्वीडन की गोथम्बर्ग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के रूप में जलवायु परिवर्तन तथा वायुमण्डलीय विषय पर गहन रिसर्च कर रहे हैं। आपने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरणा लेकर भारत उदय मिशन का गठन किया और इसके माध्यम से ग्रामीण विकास के लिए 2007 से ही सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं। इसके अंतर्गत आप अपने उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में स्थित गांव में 100 एकड़ जमीन में जैविक खेती द्वारा ग्रामीण भारत को रसायन मुक्त तथा लाभकारी खेती करने की सीख दे रहे हैं। रसायन मुक्त खेती के साथ-साथ वैश्विक पर्यावरण प्रयोग शाला, गौशाला, पेड़-पौधों का संरक्षण,  ऊर्जा संरक्षण, सौर ऊर्जा, गुरूकुल पद्धति शिक्षा के द्वारा मानव जाति के लिए एक सम्पूर्ण स्वास्थ्य की जीवन शैली विकसित कर रहे हैं। 
मानव जाति के समक्ष असली दिक्कत यह है कि प्रकृति असंतुलन वैश्विक स्तर पर सार्वभौमिक हित का मसला होते हुए भी इस मुद्दे पर राष्ट्रीय हितों का विकट टकराव है। हमारा मानना है कि कई दशकों से पर्यावरण बचाने के लिए माथापच्ची कर रही दुनिया अब अलग-अलग देशों के कानूनों से ऊब चुकी है। विश्व की कई जानी-मानी हस्तियों का मानना है कि अब सारे विश्व पर समान रूप से लागू होने वाले बाध्यकारी निर्णय करने वाले विश्व न्यायालय के गठन का ही रास्ता बचा है, ताकि हमारी गलतियों की सजा अगली पीढ़ी को न झेलनी पड़े। हमारी पूर्व पीढ़ियों ने तो हमारे भविष्य की चिंता की और प्रकृति की धरोहर को सँजोकर रखा जबकि वर्तमान पीढ़ी प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन करने में लगी है। प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितने से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है।


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