गोबर-गनेश
पंडित हरि ओम शर्मा
अपने पूज्य पिताजी द्वारा अपने लिए 'गोबर-गनेश' शब्द सुनते-सुनते लखनऊ आकर कलम घिसते-घिसते कब इस उपाधि से मुक्त होकर लेखक बन गया, पता ही न चला। मुझे आज तक याद है कि जब मैंने किशोरावस्था को पारकर युवावस्था की दहलीज पर कदम रखा था तो पिताजी द्वारा 'गोबर गनेश कहीं का' सुनने के बाद तिलमिला गया था। मन ही मन पिजाजी के खिलाफ विद्रोह की ज्वाला ऐसे धधक रही थी जैसे ज्वालामुखी धधकता है। सो मन ही मन विचलित होता हुआ माँ से जमकर शिकायत की थी पूज्य पिताजी की! उस समय शिकायत सुनकर माँ ऐसे खिलखिलाकर हँसी जैसे उसके इस कपूत पुत्र को सपूत की उपाधि से पुरष्कृत कर सम्मानित किया गया हो। माँ का यह अटपटा व्यवहार देखकर मैं माँ के ऊपर भी झुंझला गया था, तब मुझे माँ ने बड़े प्यार से समझाया था बेटा! यह कोई गाली थोड़े ही है। यह तो हमारी भारतीय संस्कृति है।
इतना सुनकर मैं अपना आपा खोते हुए माँ पर चिल्लाया, माँ यह सब क्या उल्टा-सीधा बके जा रही हो। गोबर से हमारी संस्कृति का क्या लेना-देना? इतना सुनते ही माँ आवेश में आ गई। एक ऐसा झापड़ मारा था मेरे मुँह पर जिसे मैं आज तक नहीं भूला हूँ। मुझे आज भी जब माँ की याद आती है तो अपना गाल सहलाने लगता हूँ और बरबस ही आँखों में आँसू आ जाते हैं। काश! आज माँ जिन्दा होती तो दूसरे गाल पर भी झापड़ खाने को मिलता तो इस चरम सुख का आनन्द दोगुना हो जाता। खैर, यह शरीर तो नश्वर है, बीते कल माँ चली गई और आने वाले कल में मैं भी चला जाऊँगा। यह तो सृष्टि का नियम है। किन्तु माँ द्वारा मारा गया वह झापड़ और झापड़ के साथ दिया गया उपदेश मेरे कानों में आज तक गूँज रहा है। माँ ने कहा था, बेटा! हमारा देश कृषि प्रधान देश है। गोबर हमारा धन है, जिस दिन गोबर इस देश से विदा हो जायेगा, उस दिन इस देश से खुशहाली भी विदा हो जायेगी। तभी तो गोबर हमारी संस्कृति है, धरोहर है, तभी तो हम गोबर की पूजा, अर्चना करते हैं, उसकी आरती उतारते हैं। क्या तू नहीं देखता कि दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा करते हैं, तो गोवर्धन किसका बनाया जाता है।
अब माँ की बात मेरी समझ में ऐसे आ रही थी जैसे क्लास में गणित के टीचर श्री देवकी नन्दन जी के फार्मूला समझ में आते थे। तब मैने माँ की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा था, माँ गोवर्धन तो गोबर से ही बनाया जाता है, अब गोबर का महत्व मेरे दिमाग में बढ़ता जा रहा था। सो मैंने प्रफुल्लित होते हुए माँ से कहा कि माँ, जहाँ लक्ष्मी पूजन होता है, वह स्थान भी गोबर से ही लीपा जाता है, चौका भी गोबर से लगाया जाता है, तीज-त्योहार पर भी गोबर से ही पूरे घर को लीप-पोत कर सजाया संवारा जाता है, गोबर से उपले बनते हैं, उससे सिकी हुई हम रोटी खाते हैं और गोबर को खेत में डाला जाता है, तब फसल उगाई जाती है, उससे हमारा जीवन यापन होता है। यह मैं सब एक ही साँस में कह गया था, तब माँ ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, अब समझा 'गोबर-गनेश'!!! और इतना सुनते ही मैं और माँ एक साथ हँसते-हँसते लोटपोट हो गये थे। हमारी इस हँसी को सुनकर पिताजी ने आते ही डाँट पिलाई, अब हँसता ही रहेगा गोबर-गनेश कि गायों और बैलों को पानी भी पिलायेगा?
इतना सुनते ही मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ, कि यह समय तो बैलों, गायों और भैंसो को पानी पिलाने का है। अतः मैं दौड़ता हुआ सभी को एक साथ लेकर गाँव की पोखर की तरफ चल दिया। कुल मिलाकर सोलह पशु थे हमारे घर में, हम उनकी ऐसे सेवा करते थे जैसे किसी अफसर की मातहत करता है क्योंकि हमारे पशु ही हमारे अफसर थे और मेरी माँ बात-बात पर कहती भी थी कि दुधारू गाय की तो दो-लात भी सह ली जाती है। यह माँ का मुहावरा मेरे पूरे जीवन में काम आ रहा है जिससे मेरा स्वार्थ होता है या कुछ लाभ की आशा होती तो मैं उसे भरपेट चारा खिलाता और उसकी दो-लात भी सहता। उसी मुहावरे की बदौलत आज मेरी गिनती सफल व्यक्तियों में होने लग गई है। लेकिन मैं तो गोबर के महत्व को आज भी प्रदेश की राजधानी में भी समझ रहा हूँ और उसी समझदारी की बदौलत दो रोटी भी कमाकर खा रहा हूँ। मैं आज भी गोवर्धन की पूजा गोबर से ही बनाकर करता हूँ, भले ही मैं गोबर अपने दूधवाले की चिरौरी करके लाता हूँ, किन्तु पूजा विधिवत व संस्कृति के अनुसार ही करता हूँ। मेरे पड़ोसी भी मेरे इस संस्कृति प्रेम को देखकर मेरे पीठ पीछे मुझे देहाती कहकर अपना मनोरंजन करते हैं क्योंकि इन शहरियों को गोबर पवित्र नहीं, अपवित्र लगता है। उसमें से सोंधी-सोंधी सुगन्ध की जगह, दुर्गन्ध आती है। लेकिन शहरियों की दुर्गन्ध गाँव तक भी पहुँच गई है, इसका मुझे भान तक नहीं था।
अभी एक लम्बे अन्तराल के बाद मैं अपने भाई की पोती की शादी में शामिल होने के लिए गाँव के रास्ते की डगर भर ही रहा था तभी रास्ते में मेरे बचपन के सहपाठी रमेश जी मिल गये, वह अपने बेटे की मोटरसाइकिल पर धुँआ उड़ाते हुए शहर जा रहे थे। मुझे देखते ही बोले, अरे उधर गाँव की तरफ कहाँ जा रहे हो, शादी तो शहर में है। मैने जिज्ञासावश पूछा, शहर में? वह क्यों? अरे भइया हरिओम, गाँव वालों की प्रगति को देखकर क्यों जलते हो? क्या तुम शहर वाले ही अपने धूमधाम से अपनी औलाद की शादी कर सकते हो, हम नही? इतना सुनते ही मैने कहा, तो भइया अब क्या करूँ? अरे करोगे क्या, पीछे ट्रैक्टर आ रहे हैं, गांव के सभी लोग उसमें लदे हैं, तुम भी उसमें लद लेना। इतना कहकर धुँआ छोड़ती उनकी मोटरसाइकिल फुर्र हो गई और मैं धुँआ सूंघता हुआ अपने को लखनऊ में खड़ा होने का अहसास करने लगा। इसी बीच गांव से एक लम्बी लाइन मैने ट्रैक्टरों की आते हुए देखी। करीब एक दर्जन ट्रैक्टर अवश्य रहे होंगे। उन्हीं ट्रैक्टरों में एक बुजुर्ग बैठे थे, वे मुझे पहचानते थे क्योंकि नई पीढ़ी तो मुझे जानती तक नही। अतः उन्हीं की कृपा से में ट्रैक्टर में लदकर शहर पहुँच गया। बड़े धूम-धड़ाके से शादी, बड़े भारी बैण्डबाजे, जनरेटरों की धड़धड़ाहट रोशनी की चकाचौंध देखकर तो मुझे 26 जनवरी की सजी-धजी अपनी विधानसभा याद आ गई। उसके बाद जो बारात में बेहूदा डान्स, गाली-गलौज, शराब की दुर्गन्ध देखकर मुझे अमिताभ बच्चन की फिल्म शराबी के डायलाग सुनाई देने लगे, इतने पर भी मैं एक कोने में खड़ा मुस्कराने का नाटक कर रहा था।
बारात चढ़ने के बाद जयमाला और उसके बाद गिद्ध भोज देखकर तो मुझे लखनऊ के पूरे सुख का अनुभव होने लगा। उसके बाद भाँवर व अन्य रस्मों के बाद सुबह अपनी पोती हाथ हिलाती हुई विदा हो गई। लड़की विदाई के बाद सभी गाँव की तरफ चल दिए। मैं भी एक ट्रैक्टर में पहले से ही जाकर बैठ गया। सो युवाओं की बीच संस्कृति के तार-तार होते हुए डायलाग सुनते-सुनते गांव आ गया। गाँव में देखा तो मेरा माथा ही घूम गया। गाँव तो बिल्कुल बदल गये हैं, किसी के द्वार पर बैलों की बात तो दूर, बैलों की पूँछ भी दिखाई नहीं दे रही है, गाय नदारत है, इक्का-दुक्का भैंस के अवश्य दर्शन हुए। सुबह शौच जाने के लिए पोखर की तरफ पैर बढ़ाने लगा तो भाभी ने कहा, देवर जी लोटा तो लेते जाओ। मैं बोला, पोखर पर जा रहा हूँ भाभी। अरे अब पोखर-वोखर गाँव में कहाँ है? मैने चौंकते हुए पूछा कि गाय बैल पानी कहाँ पीते हैं? अरे! कैसे गाय-बैल, अब क्या काम गाय का और क्या काम बैल का? घर-घर में ट्रैक्टर है और दूध तो कोई पीता नही है। चाय का रिवाज है। तो क्या चाय तुम शहर वालों की किस्मत में ही है? मेरी भाभी ने मेरे ऊपर कटाक्ष करते हुए कहा था।
इतना सुनने के बाद मैं लोटा लेकर जंगल की तरफ बढ़ा, तो देखा जंगल के जंगल साफ हो गये हैं। उनकी जगह फसल लहलहा रही है, झोपड़ियों की जगह पक्के मकान बन गये हैं। बिजली के तार भी खिंचे हुए दिखाई दे रहे हैं, जगह-जगह जो गोबर के ढेर दिखाई दिया करते थे, अब उनकी जगह ट्रैक्टर खड़े हैं। मैं आगे बढ़ा तो एक ट्यूबवेल देखकर उसी तरफ बढ़ गया। कुल्ला-दातून कर लहलहाती फसल को देखकर मन में विचार कौंधा कि माँ तो कहती थी कि गोबर के गायब होती ही गाँव गायब हो जायेंगे, फसल गायब हो जायेगी किन्तु यहाँ तो सब फसल लहलहा रही है। मेरा इतना विचार मन में आते ही मुझे लगा कि माँ ने मेरे दूसरे गाल पर भी झापड़ जड़ दिया है और कह रही है, अरे गोबर-गनेश कहीं के! तू इतना भी नहीं जानता है कि गाँव अब कहाँ है, गाँव तो शहर में तब्दील हो गये हैं और जो तू यह लहलहाती फसल देख रहा है, यह बस रासायनिक खादों का कमाल है। देखना एक दिन यह लहलहाती फसल देने वाली जमीन ऊसर बन जायेगी। इतना सुनकर मैं अपने बचपन की यादों में खो गया। कभी अपने गाल को सहलाकर हंसता, तो कभी 'गोबर-गनेश' की याद में रोता। बस! इसी रोने व रोने के झूले में झूल ही रहा था कि भतीजे के सम्बोधन से चौंका, चाचाजी चलिए, नाश्ता तैयार है। मैं नाश्ता कर लखनऊ वापस आ गया, मगर गोबर-गनेश को अब भी मेरी आँखे ढूँढ रही हैं।